सोमवार, 29 अक्तूबर 2012

सैह वोटां जो सरकाणे ताईं

सैह वोटां जो सरकाणे ताईं तरकीबां खूब बणाणा लग्गे। 
कुसकी जो पत्याणा लग्गे कुसकी तो जरकाणा लग्गे।।

बस जोड़ तोड़ है वोटां दी, हुण खुल्ली थैली नोटां दी।
थडऱ्ा पीणे व़ाल़े दैं सैह मुम्हें व्हीस्की चुआंणा लग्गे।। 

लाल बतियां काले शीशे, नौईयां कारां दे चमकारे भुल्ले
शिमलें डेरा लाणे तांई, घर घर अलख जगाणा लग्गे।।

देणे वाल़े मंगणा लग्गे,हुण खंगणे वाले संगणा लग्गे।
दिक्खी नजरा फेरदे थे,सैह गोडेयां हथ लगाणा लग्गे।।

ऊंच नीच समझाणा लग्गे, वोटां दो मुल्ल पाणा लग्गे।
खुल्ले नोट बणाणे तांई हन खुल्ले नोट बिछाणा लग्गे।।

लारे फिरी लगाणा लग्गे, फिरी भुलेखा पाणा लग्गे।
सपने फिरी दिखाणा लग्गे, सांझों फिरी ठगाणा लग्गे।।

बस टारगेट हुण जितणे दे, जे बणे कमांडर मिशनां दे।।
गुड चणे चबाई के भी हण केई दिनां लंगाणा लग्गे।।

शुक्रवार, 19 अक्तूबर 2012

अशरार

सब जानते हुए भी अनजान बन के जीना।
अपने ही घर में जैसे मेहमान बन के जीना।।
बन जाता है किसी का यहां कैसे खुदा कोई।
आसां नहीं इस जहां में इनसान बन के जीना।


हम जीताने का हुनर रखते हैं।। 
वो हराने का दम भरते हैं। 
वो सिरों पर हुकूमत करते है।
हम दिलों पर राज करते हैं।।


दिन बेशक अपने गुरबत में दिल तो अब भी राजा है।
मेरी बासी आंखों मं इक चेहरा अब तक ताजा है।।
वो चाह कर भी न अपने दिल की हमसे कह पाये।
जात पात का चक् कर भी वक्त का बड़ा तकाजा है।।
शुक्र खुद का है कि उनकी दुनिया खूब आबाद हुई ।
हुनर हमें भी शायरी का उस रब्ब ने ही नबाजा है।।



गुनाह -ए -इश्क की कैसी सजा दी है।
खुद हकीमों ने मेरे जख्म को हवा दी है।।
उल्टे देखें हैं तेरे शहर के उसूल हमने।
मौत मांगी थी, जिंदगी की बद्दुआ दी है।।


कल जो छोड़े थे तूने अपनी परछाई के निशान।
बन गए हैं आज वो मेरी तबाही के निशान ।।
अगर तूं नहीं लिखती थी तन्हाई में खत मुझको।
फिर क्यों थे तेरे तकिये पर स्याही के निशान ।।

अशरार 

बस चौं दिनां दे मेले यह है सार प्रेमे दा।




सजदा दिलड़ू करदा सौ सौ बार प्रेम दा।
रहे हमेशा चलदा कारोबार प्रेमे दा।।



बड़ी स्याणी दुनिया है ठगां चोरां दी।
गीतां गजलां वा़ला़ है संसार प्रेमे दा।।



प्रेम न हाट बिकाय, हुंदा प्रेम प्रीतां दां।
नी चुकाया जाणा असांते उधार प्रेमे दा।।


कुसनी पाया इस जगे बिच पार प्रेमे दा।।
बस चौं दिनां दे मेले यह है सार प्रेमे दा ।।


न चिट्टी न पतरी, न केाई तार प्रेम दा।
ले आया नगरोटें सानू प्यार प्रेमे दा।।








( पहाड़ी गजल को नई दिशा देने वाले स्वर्गीय डॉ प्रेम भारद्वाज के लिए, जिन्होंने मुझे मां बोली कांगड़ी में लिखने की प्रेरणा दी। डॉ. प्रेम भारद्वाज का जन्म 25 दिसंबर 1946 को हुआ जबकि 13 मई 2009 को वह हमें छोड़ कर इस दुनिया से विदा हो गए। प्रशासनिक अधिकारी के तौर पर प्रदेश के कई भागों में सेवारत रहते हुए उन्होंने मनो सामाजिक अध्ययन किया। मौसम मौसम, अपनी जमीन से और मौसम खराब हैं उनकी मशहूर रंचनाएं हैं। उन्होंने नेशनल बुक ट्रस्ट के लिए सीरां नामक पहाड़ी कविताओं केे संकलन का संपादन भी किया। )

पहाड़ी दोहे



कोई लाज नी तिन्हा तो झिडक़ां ते।
जिन्हा बाज नहीं ओणा फिडक़ां ते।।

देवता जाहलू भी माणुए पर कोपदा कोई।
बल़ी हर बारी बकरूए दी ही तोपदा कोई।।

टैटू बणना लग्गे नोंआ सिंगार जे अंगां दे।
बैंड कलाईयां फब्बे गये जमाने बंगा दे।।

धण गद्दिये दी पब्लिक सारी।
हन गधे करा दे घुड़सवारी।।

अफसाना लिख रहा हूं...



खबरों पर विज्ञापन जो इतना सवार हो गया।
उगाही का ही अड्डा हर अखबार हो गया ।।

संपादकों की शोखियां तो नाम की ही रह गईं।
मैनेजरों के कंधों पर सब दारोमदार हो गया।।

उन तेवरों का ताप तो वे विशेषांक ले उड़े।
खबरनसीब लूट का खुद हथियार हो गया।।

छापने न छापने का हर दाम फिक्स हो गया।
कलम के बूते यह कैसा कारोबार हो गया।।

है हुनर उसको आ गया ऐंठने का आम से।
सुना है आज कल वह बड़ा पत्रकार हो गया।।

जब सुर्खियां बने हुए हैं बस राग दरबार के।
अफसाना लिख रहा हूं सच लाचार हो गया।।

तूं बगती रावी ओ मैं पतणा दा तारू हो।।

पहाड़ी रोमांटिक गीत 
सुण मेरिये नौणो ओ, तेरे नैण कटारू हो।
तूं बगती रावी ओ मैं पतणा दा तारू हो।।

आड़ू मुक्के ओ बागां पक्के दाड़ू ओ।
फुलणा लग्गे ओ सारे साग सुआड़ू ओ।
आड़ू मुक्के ओ बागां पक्के दाड़ू ओ।
फुलणा लग्गे ओ सारे साग सुआड़ू ओ।

तूं बूटी चंबे दी, मैं हुण छड़ी दारू हो।
सुण मेरिये नौणो ओ, तेरे नैण कटारू हो।....

तेरे दंदड़ु चिटे ओ, बोल तूं बोलें मिटठे ओ।
जीणा कल्हे ओखा ओ,असां रैहणा किटठे ओ।
तेरे दंदड़ु चिटे ओ, बोल तूं बोलें मिटठे ओ।
जीणा कल्हे ओखा ओ,असां रैहणा किटठे ओ।

रिस्ता मत ठुकरांदी तू, भेजे असां रूबारू हो।
सुण मेरिये नौणो ओ, तेरे नैण कटारू हो।....

(चंबा प्रवास के दौरान इस गीत का मुखड़ा बना था जो मंडी प्रवास के दौरान मुकम्मल हुआ। )