बुधवार, 27 फ़रवरी 2013

कभी कबीर, बुल्लाह कभी,कभी सुकरात

कभी कबीर, बुल्लाह कभी,कभी सुकरात करके दुखना।
फुरसत में कभी खुद से इक मुलाकात करके देखना।।

सुहब को शाम बनाने का हुनर भी तुम्हें आ जाएगा ।
गर्मी की दुपहरी में कभी तुम बरसात करके देखना ।।

इस हकीकत को किसी दिन ख्यालात करके देखना।
भावुक हो विनोद जिंदगी को जजबात करके देखना।।

बोझ से लदा खान देखिये।।

आपने तो हर पल मेरी किस्मत के उजाले देखे।
वो कोई ओर थे जिन्होंने मेरे पावों के छाले देखे।।

मैं भी बनावटी हूं और तूं भी बनावटी है।
इस महफिल में हर चेहरा दिखावटी है।।

जिंदगी के लिए किस किस तरह लड़ती है जान देखिये।
शान शिमला की देखिये तो बोझ से लदा खान देखिये।।

पेईयां छिंजां।

घर -घर बेशक पेईयां छिंजां।
पर तां पिड़ां ते गेईयां छिंजां।।
माली जितणी कुनी कुसी ते।
हुण अप्पु हीं ढहेईयां छिंजां।।

अपनों की ही जुबानी तो अपने राज निकले।
जो राजदार रहे अपने वही दगाबाज निकले।।

कुछ लोग तो यहां भी डूब गए सागर के किनारों में ।।

कुछ तो दखल रखा ही जाए सूबे की सरकारों में ।
फितरत सवार हो गई है इस शहर के साहूकारों में।। 

वो पैसों के दम पर ही रहे सुर्खियों में अखबारों में।
राजदरबारी ही निकले वो जो रहे यहां फनकारों में।।

गाय मुंह मारती है सडक़ पर कुत्ते घूमते है कारों में।
शामिल हो गया अब यह भी मौलिक अधिकारों में ।।

वोट की आड़ में न हो सरकारी नौकरी का जुगाड़ ।
आत्मसम्मान तब तक जिंदा रहता है बेरोजगारों में।।

जिंदगी में कभी भी अचानक कुछ नहीं होता दोस्त।
नींव का कसूर ही अक्सर नजर आता है दीवारों में।।

कोई ओर थे जिनको था तूफां से टकराने का हुनर।
कुछ लोग तो यहां भी डूब गए सागर के किनारों में ।।

टेड़ापन भी जरूरी है हकीकत की जिंदगी के लिए।
भला कौन बच पाया है जंगल भी सीधे देवदारों में ।।

वो ही दीवा जलाते हैं अपने पुरखों की मजारों पर।
वो जो शामिल ही नहीं रहे जीवन के संस्कारों में।।

जब मेरा दर्द ही खुद मेरे हर दर्द की दुआ बन गई।।

उसके मुंह से निकली हर बद्दुआ भी दुआ बन गई।
जब मेरा दर्द ही खुद मेरे हर दर्द की दुआ बन गई।।

न मैं रेहया मैं, न तू रेहया तू।।

मिल्ली जाहलू रूहा कने रूह।
न मैं रेहया मैं, न तू रेहया तू।।

जाये थे मातरी दे असां जो मिलियां पनोडिय़ां....

जाये थे मातरी दे असां जो मिलियां पनोडिय़ां....

केई तंदां अरमानां दियां वक्तें देईयां जे तोडिय़ां। 
बिछड़े जे इक बरी कदी मिलियां नी जोडिय़ां।।

लाये सैह कल़ेजें जोहड़े अपने पेटे दे जाये थे।
जाये थे मातरी दे असां जो मिलियां पनोडिय़ां।। 

गुुुण भी तां अखीर तिस ही वैद्ये दा लगदा था। 
दिंदा था मातरां जेहड़ा सबना जो ही कोडिय़ां।।

टकरे जे गुर पक्के तां बाज जरकाये चिढिय़ां ।
इक रस्ता बणाणा दस्सया धरती पर मकोडिय़ां।।

रेहया चलन तिथू शुभे बिच कंगजा पुजाणे दा।
जम्णे ते पहलें पेटा बिच तिथू कुडिय़ां मरोडिय़ां।

पुनदान कन्यां दे किते लोकलाजां दी ही खातर।
कच्चियां उम्रां ब्याहियां थियां कुडिय़ां नबोडिय़ां।।

धरती ते लकीर खिच्ची जां भी जाति-धरमे दी।
दिलां च माणुआं देयां होईया खाईयां चौडिय़ां।।

विनोद भावुक, 5 फरवरी 2012

मेरी जिंदगी में रहे मेरा बचपना बाकि ।।

बिना नफे नुक्सान के रहे सोचना बाकि।
मेरी जिंदगी में रहे मेरा बचपना बाकि ।।

हर घर में तो महाभारत ही रहा।।

गीता रही हर पूजा के कमरे में।
हर घर में तो महाभारत ही रहा।।

आज मैं अधिकार कल मिन्नत हो जाऊंगा

सीता की अग्रिपरीक्षा तो फिर काहे का राम है।
सियासत है सब यह तो सियासत को सलाम है।

रावण के अंत के लिए चाहिए विभीषण का साथ।
सच की जीत को भी क्या कोई षडय़ंत्र जरूरी है।।

मैं तेरे वजूद की जरूरी जरूरत हो जाऊंगा। 
देखना एक दिन मैं तेरी आदत हो जाऊंगा।।
लोकतंत्र मे वोटर का वजूद भी क्या खूब है।
आज मैं अधिकार कल मिन्नत हो जाऊंगा।।

हर इक फीलिंग शेयरिंग थी।।

वो जितनी केयरिंग थी, उतनी ही डेयरिंग थी।
वो जिससे अपनी हर इक फीलिंग शेयरिंग थी।।

भारत में न तो ओढऩा है न बिछौना है

व्यवस्था के मायवी खेल में खिलौना है।
भूख के आगे आदमी कितना बौना है।।
एक इंडिया है जो शाइनिंग कर रहा है।
भारत में न तो ओढऩा है न बिछौना है।।

नजरां जदूं भी खादे धोखे

तिलां दे जिन्हां ताड़ बणाए।
राईया दे ही पाहड़ बणाए।।

चोरां जो क्या जंदरें मितरो।
बंदरां जो कुनी बाड़ बणाए।।

नजरां जदूं भी खादे धोखे।
दिलां दे बुरे रंगाड़ बणाए।।

वक्त पेया कुण चलें सौगी।
सज्जण थे जे लबाड़ बनाए।।

मैं खुद को नहीं समझ पाया तुम क्या समझ पाओगे।।

मुझमें उलझोगे तो खुद से ही उलझ कर रह जाओगे।
मैं खुद को नहीं समझ पाया तुम क्या समझ पाओगे।।

मैं भक्त सिंह तेरे देश में सरदार होना चाहता हूं....

मैं भक्त सिंह तेरे देश में सरदार होना चाहता हूं....

हुकूमत की नजर में अब गद्दार होना चाहता।
व्यवस्था के बदलाव में किरदार होना चाहता हूं। 

लूट के इस दौर में तो लुट गया कोई कौर में।
हक किसी का जहां मरे तकरार होना चाहता हैं।

आग लगा दे पानी में भर दे जोश जवानी में।
कलम में धार हो तो फनकार होना चाहता हंू।। 

मोल सिरों का नहीं करे जो राज दिलों पर करे।
लोकतंत्र के खेल में वो सरकार होना चाहता हूं।।

यह देश अभी गुलाम है करने को बहुत काम है।
मैं भक्त सिंह तेरे देश में सरदार होना चाहता हूं।।
विनोद भावुक 14 फरवरी 2013

मेरे दिल की इबादतों में जो शामिल रहा।।

उसकी तो आंखों में सिर्फ मेरा जिस्म रहा।
मेरे दिल की इबादतों में जो शामिल रहा।।

औरत है जहां उस हर घर में संस्कार है।।

औरत है जहां उस हर घर में संस्कार है।। 

उस कानूनी व्यवस्था पर तो धिक्कार है।
जहां बराबर नहीं महिला को अघिकार है।। 

नाम को है देवी,समझा उसे जूती पांव की।
आदमी तो युग युग से ही बड़ा मक्कार है।।

दुनिया की हर गाली औरत के ही नाम है।
जननी के लिए दिल में कितना सत्कार है।।

जन्म मरण के फेर में ही फंसी रही औरत।
मर्द का तो हर जन्म में हुआ अवतार है।।

मर्दों के दम पर कोई घर मंदिर नहीं हुआ।
औरत है जहां उस हर घर में संस्कार है।।

विनोद भावुक, 18 फरवरी 2013

पर सोगी बीणना जांगा कुण।।

क्या लिखेया,कयो लिखेया,अर्था तां समझांगा कुण।।
कांगडिय़ा विच मैं लिखदा मेरेयां गीतां गांगा कुण।।
मशरूमा दे मैरहम बणी बरसाती दा मजा गुआया।
खोल़ें पेइयां टटमोरां, पर सोगी बीणना जांगा कुण।।

(अंतरराष्ट्रीय मातृ भाषा दिवस के नाम)

न मेरी सुनता है न अपनी सुनाता है।।

वह मुझसे प्यार ही इतना जताता है। 
न मेरी सुनता है न अपनी सुनाता है।।

तुंसा लखां पाईयां फोलणियां।।

बंद गठीं किन्जां खोलणियां।
कुसने दिले दियां बोलणियां।।
असां सिद्दी सिद्दी गल पुच्छी।
तुंसा लखां पाईयां फोलणियां।।

हाकमां

हाकमां

ऐथू दी तां ओथू सरकाई हाकमां ।
खरी जे जरेब सैह चलाई हाकमां।।

खोड़ी ततीमा दिक्खें बंजरां कदीमा।
जे खानगी तक्सीम करवाई हाकमां।।

जे बणेया दलाल कदी चौकीदार।
तां मरला दो मरले दबाई हाकमां।।

भाऊआं दी जमीन बंडाई हाकमां।
अपणी तां फीस गिणाई हाकमां।।

दिक्खी ठुक टोहर सोचें कानगो।
बड़ी चैल किस्मत पाई हाकमां।।

विनोद भावुक, 24 फरवरी 2013

बच्चे पूछ रहे हैं क्या बना है खाने मे

बच्चे पूछ रहे हैं क्या बना है खाने मे

माना कि कद्रदान कम ही हैं जमाने में।
पर क्या बुराई है खुद को आजमाने में।।

इतनी रहमत तू जरूर मुझे बख्श मौला।
कि उम्र गुजरे मेरी कोई बस्ती बसाने में।।

बडे चाव से बांटता रहूं मैं अपनी दौलत।
कई गजलें नज्में नगमे हैं मेरे खजाने में।।

जिससे कोई रिस्ता न हो लहू का कभी।
गुरेज न करूं उसको अपना बनाने में।।

कुछ तो कद्र कर तू मेरी मुहब्बत की।
ता उम्र गुजार दी मुझको आजमाने में।

उसको मुकम्मल नहीं समझा कभी मैंने
जिक्र तेरा न आया मेरे जिस तराने में।।

कहने भर को जिंदा जो मुझसे है रखा।
खत्म कर ताल्लुक मजा गर न निभाने में।।

दिल आया आखिर उसी दिल जले पर ।
करार जिसको आए है दिल दुखाने में।।

कम नहीं इस शहर में दुश्मनों की कमी।
पर कुछ वाहवाही दे जाते हैं अनजाने में।।

 एक लम्हे में सारी एक जिंदगी जी ली।
एक उम्र भी बिताईहै तुझको पाने में।।

ठंडा चूल्हा है बर्तन भी खाली खाली।
बच्चे पूछ रहे हैं क्या बना है खाने मेें।।

(इस गजल को मुकम्मल करने में श्रदेय कीर्ति राणा, मनु मिश्रा,दिनेश कुमार, राकेश पथरिया व डॉ. अजय पाठक का हार्दिक आभार)

लूणा बरूरदा।

जख्मां ते हर कोई है लूणा बरूरदा।
कुसने मैं गमां देयां गुदड़ां बखूरदा।।

कागजां च पुज्जी गेई लेह तक रेल ।।

कागजां च पुज्जी गेई लेह तक रेल ।।

रेह सिकर दोपहर कदी पैहर सबेल।
असंा दैं हेस्सैं रेही सदा ही कबेल ।।

मुकणे नी कदी ऐथू टूणे कनैं टोटके।
बसणे न चेले ओएं जदूं तक खेल।।

ओपरी कमाई तिनी तां गलैं लाई।।
मारी गेया टब्बरे दा लूण कने तेल।।

अज्हे भी नी होई पाया तेरा मेरा मेल।
कागजां च पुज्जी गेई लेह तक रेल ।।