रविवार, 31 मार्च 2013

अपने मुकद्दर में हर मौसम उदास था।।

उनकी हां में हां नहीं मिलाई।
हमने इसलिए मुंह की खाई।।

थी कितनी रौनकें कितना उल्लास था।
अपने मुकद्दर में हर मौसम उदास था।।

रुत कितनी रंगीन थी कितना तो गुलाल था। 
महफिल में तुम ही थे इतना सा मलाल था।।

लोकां जो जल़ाणे तांई मैंजर तां पाई छडा।
होलिय़ा दा दिन मिंजो रंग तां लगाई छड़ा ।।

बंजर सा टुकड़ा उपजाऊ जमीं था।।

उन माहिरों को यह पता ही नहीं था।
बंजर सा टुकड़ा उपजाऊ जमीं था।।

महफिल में भी वो तो तन्हां थे बैठे।
निगाहें कहीं थी, निशाना कहीं था।।

यही सोच कर कभी न हाजी हुए वे। 
मुहब्बत जहां थी, खुदा भी वहीं था।।

मुसाफिर थे सब किसको था रुकना।
शहर तो सदियों से वहां का वहीं था।।

जीने के बाद ही हुआ तुर्जुबा हमें भी।
जन्नत इधर थी और जहनुम यहीं था।।

प्रबंधन बोले,उसके दम पर अखबार है।।

वो भी कितना गजब का कलमकार है।
एक जेब में विपक्ष दूसरी में सरकार है।।
भूखे बच्चों की चित्कार कैसे सुनेगा वो।
जिसके लिए पैसा इकलौता सरोकार है।।
उसकी तहरीरों पर हसें कि रोयें बताओ।
कुछ भी लिख देना उसका कारोबार है।।
हुनर इश्तहार ऐंठने का खूब आतो उसे।
प्रबंधन बोले,उसके दम पर अखबार है।।