शुक्रवार, 19 अक्तूबर 2012

अफसाना लिख रहा हूं...



खबरों पर विज्ञापन जो इतना सवार हो गया।
उगाही का ही अड्डा हर अखबार हो गया ।।

संपादकों की शोखियां तो नाम की ही रह गईं।
मैनेजरों के कंधों पर सब दारोमदार हो गया।।

उन तेवरों का ताप तो वे विशेषांक ले उड़े।
खबरनसीब लूट का खुद हथियार हो गया।।

छापने न छापने का हर दाम फिक्स हो गया।
कलम के बूते यह कैसा कारोबार हो गया।।

है हुनर उसको आ गया ऐंठने का आम से।
सुना है आज कल वह बड़ा पत्रकार हो गया।।

जब सुर्खियां बने हुए हैं बस राग दरबार के।
अफसाना लिख रहा हूं सच लाचार हो गया।।

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