मैं किसी गैर से भी मिलूं तो पहचान पुरानी निकले
मैं कोई भी ग़ज़ल लिखूं तो वह इक कहानी निकले
सूखे फूल ही गुलाब के गवाह बनते रहे हर दौर मैं
हर बार किताबों से ही मुहब्बत की निशानी निकले
गूंगे बहरों के साथ दिन भर की कसरत के बाद जब
जो तुझसे मिलना हो तो अपनी शाम सुहानी निकले
हम तो हरगिज ही फिर खुद से भी तो गैर निकलेंगे
दिल जब अपना किसी की अमानत बेगानी निकले
फिर से कोई कबीर किसी महल से अड़ कर निकले
फिर किसी श्याम के लिए कोई मीरा दीवानी निकले
मैं कोई भी ग़ज़ल लिखूं तो वह इक कहानी निकले
सूखे फूल ही गुलाब के गवाह बनते रहे हर दौर मैं
हर बार किताबों से ही मुहब्बत की निशानी निकले
गूंगे बहरों के साथ दिन भर की कसरत के बाद जब
जो तुझसे मिलना हो तो अपनी शाम सुहानी निकले
हम तो हरगिज ही फिर खुद से भी तो गैर निकलेंगे
दिल जब अपना किसी की अमानत बेगानी निकले
फिर से कोई कबीर किसी महल से अड़ कर निकले
फिर किसी श्याम के लिए कोई मीरा दीवानी निकले
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