शुक्रवार, 28 मार्च 2014

सोशल मीडिया पर तो छाए पर सोशल कहां रह पाए

सूचना क्रांति ने तोड़ा सामाजिक ताना-बाना, मिलना-जुलना हुआ कम

सोशल मीडिया का धड़ल्ले से प्रयोग हो रहा है। किसी ने फेसबुक, ट्विटर या पहाड़ीरूट्स पर स्टेट्स अपडेट को अपनी दिनचर्या में शामिल कर लिया है तो कोई वॉट्सएप पर अपनी हर अपडेट शेयर करने को अपनी प्राथमिकता समझने लगा है।

ट्वीटर पर अपनी उपस्थिति का एहसास करवाने में भी कोई पीछे नहीं है। सोशल साइट्स पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की मस्ती में डूबे लोग कितने सोशल रह पाए हैं, यह अहम सवाल है। लोकसभा चुनाव सिर पर हैं। नेताओं को अपनी बात हर मतदाताओं तक पहुंचानी है। जाहिर है कि सूचना क्रांति के इस युग में सोशल मीडिया की ताकत का अंदाजा नेताओं को भी है और यह भी पता है कि मतदाता की नब्ज पर हाथ कैसे रखना है। नेता लोग सोशल मीडिया का जमकर प्रयोग कर रहे हैं। ये वही नेता लोग हैं, जो सामान्य वक्त में इतने हाई प्रोफाइल होते हैं कि मतदाता की पहुंच से बाहर होते हैं। कई नेता तो ऐसे भी हैं कि सिर्फ चुनावी मौसम में ही नजर आते हैं। कहीं कॉरपोरेट स्टाइल है तो कोई बिजनेस में व्यस्त है। ऐसे नेताओं के सामाजिक सरोकार तभी जागते हैं, जब बात वोटों के गणित की होती है। ये नेता सोशल मीडिया पर खुद को व्यक्त करने में सबसे आगे हैं। ज्यादा वक्त नहीं हुआ, जब गांव-मुहल्ले के किसी एक घर में शादी होने पर सारा गांव अपनी सामाजिक जिम्मेदारी निभाने में जुट जाता था। धाम के लिए लकड़ी के प्रबंध की जिम्मेवारी गांव के मर्दों के हिस्से होती थी तो, गांव की स्त्रियां धाम के लिए चावल-दाल छांटने का काम करतीं थीं। इस बीच लोक संगीत, गप्प- शप खूब चलती थी। चौपालों पर गांव के वरिष्ठ नागरिक आम जीवन के मसलों पर एक-दूसरे से चर्चा करते थे। तकनीक के जीवन में हावी होने से हमारा सारा सामाजिक ताना-बाना बुरी तरह से टूट गया है।

गांव और पास-पड़ोस की बात तो दूर की, हकीकत तो यह है कि अब हम पारिवारिक आयोजनों में भी मोबाइल संदेश भेज कर अपने सोशल होने की जिम्मेवारी निभाने लगे हैं।