उन माहिरों को यह पता ही नहीं था।
बंजर सा टुकड़ा उपजाऊ जमीं था।।
महफिल में भी वो तो तन्हां थे बैठे।
निगाहें कहीं थी, निशाना कहीं था।।
यही सोच कर कभी न हाजी हुए वे।
मुहब्बत जहां थी, खुदा भी वहीं था।।
मुसाफिर थे सब किसको था रुकना।
शहर तो सदियों से वहां का वहीं था।।
जीने के बाद ही हुआ तुर्जुबा हमें भी।
जन्नत इधर थी और जहनुम यहीं था।।
बंजर सा टुकड़ा उपजाऊ जमीं था।।
महफिल में भी वो तो तन्हां थे बैठे।
निगाहें कहीं थी, निशाना कहीं था।।
यही सोच कर कभी न हाजी हुए वे।
मुहब्बत जहां थी, खुदा भी वहीं था।।
मुसाफिर थे सब किसको था रुकना।
शहर तो सदियों से वहां का वहीं था।।
जीने के बाद ही हुआ तुर्जुबा हमें भी।
जन्नत इधर थी और जहनुम यहीं था।।
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