शुक्रवार, 19 अक्तूबर 2012

बस चौं दिनां दे मेले यह है सार प्रेमे दा।




सजदा दिलड़ू करदा सौ सौ बार प्रेम दा।
रहे हमेशा चलदा कारोबार प्रेमे दा।।



बड़ी स्याणी दुनिया है ठगां चोरां दी।
गीतां गजलां वा़ला़ है संसार प्रेमे दा।।



प्रेम न हाट बिकाय, हुंदा प्रेम प्रीतां दां।
नी चुकाया जाणा असांते उधार प्रेमे दा।।


कुसनी पाया इस जगे बिच पार प्रेमे दा।।
बस चौं दिनां दे मेले यह है सार प्रेमे दा ।।


न चिट्टी न पतरी, न केाई तार प्रेम दा।
ले आया नगरोटें सानू प्यार प्रेमे दा।।








( पहाड़ी गजल को नई दिशा देने वाले स्वर्गीय डॉ प्रेम भारद्वाज के लिए, जिन्होंने मुझे मां बोली कांगड़ी में लिखने की प्रेरणा दी। डॉ. प्रेम भारद्वाज का जन्म 25 दिसंबर 1946 को हुआ जबकि 13 मई 2009 को वह हमें छोड़ कर इस दुनिया से विदा हो गए। प्रशासनिक अधिकारी के तौर पर प्रदेश के कई भागों में सेवारत रहते हुए उन्होंने मनो सामाजिक अध्ययन किया। मौसम मौसम, अपनी जमीन से और मौसम खराब हैं उनकी मशहूर रंचनाएं हैं। उन्होंने नेशनल बुक ट्रस्ट के लिए सीरां नामक पहाड़ी कविताओं केे संकलन का संपादन भी किया। )

कोई टिप्पणी नहीं :

एक टिप्पणी भेजें