शुक्रवार, 19 अक्तूबर 2012

अशरार

सब जानते हुए भी अनजान बन के जीना।
अपने ही घर में जैसे मेहमान बन के जीना।।
बन जाता है किसी का यहां कैसे खुदा कोई।
आसां नहीं इस जहां में इनसान बन के जीना।


हम जीताने का हुनर रखते हैं।। 
वो हराने का दम भरते हैं। 
वो सिरों पर हुकूमत करते है।
हम दिलों पर राज करते हैं।।


दिन बेशक अपने गुरबत में दिल तो अब भी राजा है।
मेरी बासी आंखों मं इक चेहरा अब तक ताजा है।।
वो चाह कर भी न अपने दिल की हमसे कह पाये।
जात पात का चक् कर भी वक्त का बड़ा तकाजा है।।
शुक्र खुद का है कि उनकी दुनिया खूब आबाद हुई ।
हुनर हमें भी शायरी का उस रब्ब ने ही नबाजा है।।



गुनाह -ए -इश्क की कैसी सजा दी है।
खुद हकीमों ने मेरे जख्म को हवा दी है।।
उल्टे देखें हैं तेरे शहर के उसूल हमने।
मौत मांगी थी, जिंदगी की बद्दुआ दी है।।


कल जो छोड़े थे तूने अपनी परछाई के निशान।
बन गए हैं आज वो मेरी तबाही के निशान ।।
अगर तूं नहीं लिखती थी तन्हाई में खत मुझको।
फिर क्यों थे तेरे तकिये पर स्याही के निशान ।।

अशरार 

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