रविवार, 21 जुलाई 2013

फिर किसी श्याम के लिए कोई मीरा दीवानी निकले

मैं किसी गैर से भी मिलूं तो पहचान पुरानी निकले 
मैं कोई भी ग़ज़ल लिखूं तो वह इक कहानी निकले 

सूखे फूल ही गुलाब के गवाह बनते रहे हर दौर मैं 
हर बार किताबों से ही मुहब्बत की निशानी निकले 

गूंगे बहरों के साथ दिन भर की कसरत के बाद जब 
जो तुझसे मिलना हो तो अपनी शाम सुहानी निकले 

हम तो हरगिज ही फिर खुद से भी तो गैर निकलेंगे
दिल जब अपना किसी की अमानत बेगानी निकले

फिर से कोई कबीर किसी महल से अड़ कर निकले
फिर किसी श्याम के लिए कोई मीरा दीवानी निकले

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